१०० ग्राम सुकून
भी काफी होता
ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए
सब कुछ था पर
बस सुकून ही न मिला
पल दो पल के लिए
हर रात रोशन था आसमान
उस चाँद की चांदनी के दरम्यान
पर मेरी आँखों से गायब है जो नींद
ऐ बेचैन मन मेरे, तेरा सुकून कहाँ
थकी सी मेरी उंगलियां ढूंढ रही हैं जवाब कईं
पर न जवाब मिले, न राहत मिली, न ही वो दास्तान
के अब स्क्रीन पे टकटकी लगाए बैठी हैं आँखें मेरी
पूछे जो खुद से मन मेरा, तेरा सुकून कहाँ
हसता हूँ , मुस्कुराता हूँ
बतियाता हूँ, जो ज़रूरत पड़े
उस भीड़ में मैं बिलकुल तुम्हारी तरह हूँ
बेचैन मन जिसे ढ़ूढ़ने पर भी न सुकून मिले
दिन बदलते बदलते मौसम यूँ बदल गए
सर्दी की धूप में भीगते, सावन के झूले पड़ गए
जो आया पतझड़ तो आवारा फिरूं यहाँ वहां
बदल गए कितने मौसम, पर तेरा सुकून कहाँ
उस ढलते सूरज के साथ मैंने खुद को घुलते पाया है
सागर के किनारे पे खुद के गम को भुलाया है
दर्द थोड़ा जो कम हो जाता, इसी उम्मीद में हूँ यहाँ
वरना तो इस फुदकते मन को रत्ती भर भी सुकून कहाँ
उम्रें हो चली हैं अब तो गम पीते हुए
कितनी दफा पूछा है खुद को
क्या करूँ के सुकून हासिल हो
चाहे फिर पल दो पल के लिए
सब कुछ था पर
बस सुकून ही न मिला
पल दो पल के लिए
ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए
काफी होता – १०० ग्राम
ही मिलता जो सुकून भले
Karanvir
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