बहुत भीड़ लगी है आजकल
जगह-जगह, हर जगह
सब व्यस्त से मालूम होते हैं
गुज़र बसर जुगाड़ रहे शायद
क्या करें भाई?
यह इक्कसवीं सदी है
यहाँ सपनों का बाजार लगा है
सब उसी कारोबार में व्यस्त हैं शायद
बहुत भीड़ जमा है चारों ओर
हर ओर जहाँ से गुज़रता हूँ
सिनेमा घरों में, मदिनों में
दुकानों में, और मॉलों में
सड़कों पे, कार्यालों में
पर फिर भी इक सन्नाटा सा है
जैसे हर कोई रूठा हुआ है इक-दूजे से
अचरज में हूँ के ऐसा क्यों है
सपनों ने, आकांक्षाओं ने
हम सब को जकड़ सा लिया है
हम ज़िन्दगी की दौड़ में,
खुद की अनकही सी खोज में
इतने मेह्फूस हो गए हैं
के भूल चूके हैं –
इक दुनिया और भी बस्ती है
छुपी बैठी है जो मन के किसी कौने में
और हमारी रूह उसे आज भी तरसती है
पर कैसे कराएं रूह का रूबरू उस दुनिया से
कम्बख्त फुर्सत ही तो नहीं हमें अपने सपनों से
फेसबुक पे, और ट्विटर पे
इंस्टा पे और स्नैपचैट पे
और कभी-कभी दफ्तर में
कईं दोस्त बना लिए हैं हर नेटवर्क पे
पर फिर भी जब शुक्रवार आता है
तो अकेले ही हस्ता हूँ याद कर उनकी बातों पे
यूँ तो मैं जाकर उनके संग जाम लगा लूँ
पर फुर्सत ही नहीं बाकी चर्चों से
चलो मान लिया मैंने
तुम, मैं और तुम व्यस्त हैं बहुत
पर कोई तो पूछो इन बच्चों से
न बरामदों में दीखते हैं
न मैदानों में, न बारिश में नाव तैराते
न सड़कों में साइकिल दौड़ाते
कहाँ छुपे बैठे हैं अपने बचपन से
यूँ तो मैं जाकर इनका बचपन जगा दूँ
पर डरता हूँ कहीं दूर न हो जाएँ यह अपने सपनों से
एक घर मैंने भी बसाया है
मीलों दूर घर से इन शहरों में
सुख भी है, सुविधाएं भी हैं
नेटफ्लिक्स भी है, और प्राइम भी है
कईं दोस्त बुने हैं मैंने दीवारों में
पर फिर भी जब लौट कर घर को आता हूँ
सन्नाटों के शोर गूंजते हैं हज़ारों में
यूँ तो मैं वापिस जाकर अपने देश बस जाऊं
फिर थम जाता हूँ सोचकर के फुर्सत ही कहाँ है इन नज़ारों से
फिर इक दिन थक्क-हारकर
मिलाया मैंने सुट्टे का धुआँ
उस सरूर चाय की प्याली में
के झट्ट से हवा चलने लगी गर्मी में
और बूँदें गिरी ज़ोरो से आँगन में
जैसे कोई बात दबी हो अर्सों से
“यूँ तो मैं रोज़ बरस जाऊं, मैं रोज़ आऊं झोकों में
पर क्या करूँ मूर्ख – फुर्सत ही नहीं तुझे तेरे अपने सपनों से”
घरों में लोग रहते हैं
पर सोसाइटी में पडोसी नहीं
अपनी तारीखों पे त्यौहार आते हैं
पर उन्ही तारीखों पे अपने नहीं
घरों में लक्ष्मी आती है
पर लक्ष्मी की बरगत नहीं
दरवाज़ों पे दस्तक होती है
पर दस्तक में धड़कन नहीं
क्यों बंद है बरामदों की बिजलियाँ
पर टीवी की रौशनी नहीं
थक गयी उंगलियां स्क्रीन पे चलते-चलते
पर बैठे जो संग, उनसे न हो पाई बात कोई
बोतलों के ढक खुल गए
पर अपनों के दिल नहीं
टकटकी लगाए आस में बैठे हैं
पर न आया रिप्लाई उनसे, जो अपने हैं ही नहीं
क्यों बेबस हैं कल की सोच में
और आज मन में चैन नहीं
क्यों सब कुछ है सबके पास
फिर भी मन में उल्लास नहीं
क्यों हासिल करने की दौड़ में
खुद को ही भूल आए हम कहीं
यूँ तो आज़ाद हैं हम कहने को
पर फिर भी हम आबाद नहीं
तुम क्या करोगे इन सपनों का
जब इन सब जंजालों से तुम निकले ही नहीं
तुम क्या करोगे इन सपनों का
जब अपनों के लिए तुम्हें फुर्सत ही नहीं