छत

 

कभी अपने घर की छत पे गए हो?

सरिया, बजरी, सीमेंट देखा होगा

देखे होंगे कपड़े जो माँ ने 

सूखने के लिए तार पे टाँगे थे

जल्दी से उप्पर जाकर 

गेंद पडोसी की लायी होगी

या छुपाई होगी

बचपन की कईं सारी अटखेलियां

तुम्हें कभी तो याद आयी होंगी

 

ऐसा करना 

यूँ की तुम अब बड़े हो गए हो

इक दिन फिर से 

अपने घर की छत पे जाना

और थोड़ा थम के आना, 

मौका मिले तो बैठ जाना

बहुत हसीं यादें भी मिलेंगी 

सहम सहज के किसी कोने 

में सरिये पे जंग की तरह लगी होंगी

 

याद है वो कईं शामें

ढलते सूरज के साथ

जो तुमने छत पे बिताई थी

दोस्तों के संग संग

जब तुमने चाय की चुस्की लगाई थी

आज भी कहीं सुट्टे की तरह

सुलगता होगा मन तुम्हारा

के बिना बहानों के ही 

तुमने काफी तफरी मचाई थी

 

आज जब महंगी महंगी जगहों

पे खाना खाने जाते हो

तो तरसते होगे उस मैग्गी को

जो माँ ने छत पे भिजवाई थी

यह सोच के लल्ला मेरा

कर रहा परीक्षा की पढाई जी

पर क्या पता था माँ को

के लल्ला ने  छत के उस पार

दिललगी जो लगाई थी

 

अर्सों हुए, भूल गए होगे

के घर का छत कैसा दीखता है

आज भी वहां से

उगता और ढलता सूरज दिखता है

छत से होली पे गुब्बारे आज भी फेंके जाते हैं

छत से नज़ारे अलग ही नज़र आते हैं

बहुत ख़ुशी या बहुत सारा गम 

लोग आज भी छत पे जाकर

खुद से बात कर आते हैं

 

वाजिब है, तुम्हें यह सब याद न हो 

आखिर बड़े शहरों की

आदत जो हो गयी है तुम्हें

क्यों इतने क्रूर हो गए हो तुम

या ऐसा कहूं

के ज़िन्दगी के हाथों 

मजबूर से हो गए हो गए हो तुम

के घर जाकर भी छत पर नहीं जाते

या डरते हो के छत तुम्हें हमेशा के लिए रोक न ले

 

नहीं ऐसा नहीं होगा 

पर छत आज भी तुम्हारी करतूतें 

सुनने को तत्पर होगा, सुनो ऐसा करना  

इस बार जब घर को जाओ

तो छत से भी ज़रा मिलकर आना 

उससे थोड़ी गुफ्तगू करके आना

जो इतना बोझ लिए 

अपने सीने में ज़िन्दगी ढो रहे हो

शायद थोड़ा हल्का हो जाए!